निहारा तुमको कितनी बार ।
लय - जगाया तुमको कितनी बार
रचयिता - आचार्यश्री तुलसी
निहारा तुमको कितनी बार ।
जितनी बार निहारा हारा, कही न पाया पार ॥
शास्त्र सिन्धु में देखा तरते, तल तक गहरे नीर उतरते ।
रत्न अमूल्य हस्तगत करते,
देखा हमने बड़े गौर से, भरते गण - भण्डार
कभी तपोवन में तुम आये, आतापन भूमी में पाये ।
प्राणार्पण संकल्प सझाये,
तीव्र - प्रेरणा - प्रेरित फिर से करते धर्म प्रचार
सराबोर चर्चा में रहते, अपने शुभ प्रवाह में बहते ।
सत्य स्पष्ट भाषा में कहते,
सहते कुवचन - वचन कहीं सहते घूंसों की मार
करते सीधी - सादी बातें, गहन तत्त्व झट से समझाते ।
तार निकाल तुरत दिखलाते,
अरे हेम ! यो क्यों करते हो, आपस में तकरार ?
कड़े - कड़े दृष्टान्त सुनाते, जड़ से मिथ्या - रोग मिटाते ।
जिन - चाणी की अलख जगाते,
कहीं नहीं भय खाते, राम दम गम खाते हर बार
कभी संघ सारण - वारण में विधि - विधान के निर्धारण में ।
परिचर्या विधिवत कारण में,
तारण -तरण, शरण अशरण के. निराधार - आधार
कवि, लेखक वक्ता, व्याख्याता, आगम - सूक्तों के उद्गाता ।
तेरापंथ के भाग्य विधाता,
अयि भिक्षो ! क्या गाए 'तुलसी' महिमा अपरम्पार
लय: दिल के अरमां स्वयित्री साध्वीश्री जयश्रीजी
December 07,2022 / 1:25 PM
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