परमेष्ठी-वन्दना
लय : लें नये निर्माण का व्रत
रचयिता : आचार्य श्री तुलसी
वन्दना आनन्द-पुलकित, विनय-नत हो मैं करूं ।
एक लय हो, एक रस हो भाव-तन्मयता वरूं ।।
1. सहज निज आलोक से भासित स्वयं संबुद्ध हैं ।
धर्म-तीर्थंकर शुभंकर, वीतराग विशुद्ध हैं ।।
गति-प्रतिष्ठा त्राण-दाता, आवरण से मुक्त हैं ।
देव अर्हन् दिव्य-योगज, अतिशयों से युक्त हैं ।।
2. बंधनों की शृंखला से, मुक्त शक्ति-स्रोत हैं ।
सहज निर्मल आत्मलय में, सतत ओतः प्रोत हैं ।।
दग्धकर भव बीज अंकुर, अरुज अज अविकार हैं ।
सिद्ध परमात्मा परम, ईश्वर अपुनरवतार हैं ।।
3. अमलतम आचारधारा, में स्वयं निष्णात हैं ।
दीप-सम शत दिप दीपन के लिए प्रख्यात हैं ।।
धर्म-शासन के धुरन्धर, धीर धर्माचार्य हैं ।
प्रथम पद के प्रवर प्रतिनिधि, प्रगति में अनिवार्य हैं ।।
4. द्वादशांगी के प्रवक्ता, ज्ञान-गरिमा-पुंज हैं ।
साधना के शान्त उपवन में सुरम्य निकुंज हैं ।।
सूत्र के स्वाध्याय में संलग्न रहते हैं सदा ।
उपाध्याय महान श्रुतधर, धर्म-शासन सम्पदा ।।
5. सदा लाभ-अलाभ में, सुख-दुःख में मध्यस्थ हैं ।
शान्तिमय, वैराग्यमय, आनन्दमय आत्मस्थ हैं ।।
वासना से विरत आकृति, सहज परम प्रसन्न हैं ।
साधना धन साधु, अन्तर्भाव में आसन्न हैं ।।
September 30,2022 / 10:54 PM
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